रवीन्द्रनाथ टैगोर

“मन जहां डर से परे है
और सिर जहां ऊंचा है;
ज्ञान जहां मुक्*त है;
और जहां दुनिया को
संकीर्ण घरेलू दीवारों से
छोटे छोटे टुकड़ों में बांटा नहीं गया है;
जहां शब्*द सच की गहराइयों से निकलते हैं;
जहां थकी हुई प्रयासरत बांहें
त्रुटि हीनता की तलाश में हैं;
जहां कारण की स्*पष्*ट धारा है
जो सुनसान रेतीले मृत आदत के
वीराने में अपना रास्*ता खो नहीं चुकी है;
जहां मन हमेशा व्*यापक होते विचार और सक्रियता में
तुम्*हारे जरिए आगे चलता है
और आजादी के स्*वर्ग में पहुंच जाता है
ओ पिता
मेरे देश को जागृत बनाओ”
– रवीन्द्रनाथ टैगोर


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