सरकार है या मौत की फैक्ट्री..?

असली पप्पू तो ये चाय वाला निकला
9 महीने बाद पता चला पप्पू फेल हो गया हैं.
गरीबी मिटा देने की बातें सिर्फ बातें हैं, जो दौलत के भूखे हैं वह गरीबी क्या मिटाएंगे, गरीब को मिटा सकते हैं गरीबी नहीं, तस्वीरें गवाह हैं !!
रेल से मौत, अस्पताल से मौत, पत्रकारिता से मौत, नोटबंदी से मौत, जीएसटी से मौत, व्यापम से मौत..?? मौत ही मौत..? सरकार है या मौत की फैक्ट्री..?
कुछ तो गड़बड़ है जालिम तेरे किरदार में,

वारना इतने हादसे नही होते किसी सरकार में!!!!

सियासत मुल्क़ में इस कदर अवाम पे एहसान करती है

सियासत मुल्क़ में इस कदर अवाम पे एहसान करती
है
पहले आँखे छीन लेती है फिर चश्में दान करती है…

कालका मंदिर पर चल गया बुलडोजर

मंदिर तोड़ विकास !!
कालका मंदिर पर चल गया बुलडोजर
मौलवी इस्लाम का प्रचारक होता है
पुजारी पेट पालता है, पुजारी का आम सरोकार होता नहीं
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दिल्ली के कडकडडूमा कोर्ट के पास प्रसिद्ध कालका मंदिर तोड दिया गया, उस बुलडोजर चल गया। हिन्दूवादियों की कोशिशें असफल हुई। मंदिर को बचाने के लिए बीस हिन्दू भी नहीं पहुंचे। जबकि मनोज राघव जैसे हिन्दूवादियो ने पूरी दिल्ली को अगाह किया था।
मुझे भी आक्रोश है। समस्या अपने घर में हैं। मौलवी इस्लाम का प्रचारक होता है, वह मस्जिद से बाहर भी जाकर सबको एकत्रित करता है, संगठित रखता है, इस्लाम के प्रति समर्पित रहने की प्रेरणा देता है जबकि पूजारी सिर्फ कर्मकांड और चढावे में ही व्यस्त रहता है, आम हिन्दुओ से उसका सरोकार नहीं होता है, हिन्दू धर्म से उसका कोई खास लगाव नहीं होता है, वह निचले वर्ग से घृणा भी करता है। अगर पूजारी हिन्दुत्व के लिए प्रेरित करने का काम करे और हिन्दुत्व के प्रति आस्था जगाये तो फिर मंदिर पर बलिदान होने के लिए सैकडों लोग सामने होंगे। कडकाडूमा कोर्ट का कालका जी मंदिर इसका उदाहरण है बचाने कोई आया नहीं। मंदिर टूटेन से कैसे बचेगे, मंदिर हिन्दू आस्था का केन्द्र कैसे बन सकते है, इस पर मेरा एक स्पीच और अभियान शुरू होगा।

जातिवादी लोग इस पोस्ट से दूर रहें?

मोदी, नेहरू से लड़ते लड़ते अपने भाषणों में हारने लगे हैं

नेहरू से लड़ते लड़ते अपने भाषणों में हारने लगे हैं मोदी
प्रधानमंत्री मोदी के लिए चुनाव जीतना बड़ी बात नहीं है। वे जितने चुनाव जीत चुके हैं या जीता चुके हैं यह रिकार्ड भी लंबे समय तक रहेगा। कर्नाटक की जीत कोई बड़ी बात नहीं है लेकिन आज प्रधानमंत्री मोदी को अपनी हार देखनी चाहिए। वे किस तरह अपने भाषणों में हारते जा रहे हैं। आपको यह हार चुनावी नतीजों में नहीं दिखेगी। वहां दिखेगी जहां उनके भाषणों का झूठ पकड़ा जा रहा होता है। उनके बोले गए तथ्यों की जांच हो रही होती है। इतिहास की दहलीज़ पर खड़े होकर झूठ के सहारे प्रधानमंत्री इतिहास का मज़ाक उड़ा रहे हैं। इतिहास उनके इस दुस्साहस को नोट कर रहा है।
प्रधानमंत्री मोदी ने अपना शिखर चुन लिया है। उनका एक शिखर आसमान में भी है और एक उस गर्त में हैं जहां न तो कोई मर्यादा है न स्तर है। उन्हें हर कीमत पर सत्ता चाहिए ताकि वे सबको दिखाई दें शिखर पर मगर ख़ुद रहें गर्त में। यह गर्त ही है कि नायक होकर भी उनकी बातों की धुलाई हो जाती है। इस गर्त का चुनाव वे ख़ुद करते हैं। जब वे ग़लत तथ्य रखते हैं, झूठा इतिहास रखते हैं, विरोधी नेता को उनकी मां की भाषा में बहस की चुनौती देते हैं। ये गली की भाषा है, प्रधानमंत्री की नहीं।
दरअसल प्रधानमंत्री मोदी के लिए नेहरू चुनौती बन गए हैं। उन्होंने खुद नेहरू को चुनौती मान लिया है। वे लगातार नेहरू को खंडित करते रहते हैं। उनके समर्थकों की सेना व्हाट्स अप नाम की झूठी यूनिवर्सिटी में नेहरू को लेकर लगातार झूठ फैला रही है। नेहरू के सामने झूठ से गढ़ा गया एक नेहरू खड़ा किया जा रहा है। अब लड़ाई मोदी और नेहरू की नहीं रह गई है। अब लड़ाई हो गई है असली नेहरू और झूठ से गढ़े गए नेहरू की। आप जानते हैं इस लड़ाई में जीत असली नेहरू की होगी।
नेहरू से लड़ते लड़ते प्रधानमंत्री मोदी के चारों तरफ नेहरू का भूत खड़ा हो गया। नेहरू का अपना इतिहास है। वो किताबों को जला देने और तीन मूर्ति भवन के ढहा देने से नहीं मिटेगा। यह ग़लती खुद मोदी कर रहे हैं। नेहरू नेहरू करते करते वे चारों तरफ नेहरू को खड़ा कर रहे हैं। मोदी के आस-पास अब नेहरू दिखाई देने लगे हैं। उनके समर्थक भी कुछ दिन में नेहरू के विशेषज्ञ हो जाएंगे, मोदी के नहीं। भले ही उनके पास झूठ से गढ़ा गया नेहरू होगा मगर होगा तो नेहरू ही।
प्रधानमंत्री के चुनावी भाषणों को सुनकर लगता है कि नेहरू का यही योगदान है कि उन्होंने कभी बोस का, कभी पटेल का तो कभी भगत सिंह का अपमान किया। वे आज़ादी की लड़ाई में नहीं थे, वे कुछ नेताओं को अपमानित करने के लिए लड़ रहे थे। क्या नेहरू इन लोगों का अपमान करते हुए ब्रिटिश हुकूमत की जेलों में 9 साल रहे थे? इन नेताओं के बीच वैचारिक दूरी, अंतर्विरोध और अलग अलग रास्ते पर चलने की धुन को हम कब तक अपमान के फ्रेम में देखेंगे। इस हिसाब से तो उस दौर में हर कोई एक दूसरे का अपमान ही कर रहा था। राष्ट्रीय आंदोलन की यही खूबी थी कि अलग अलग विचारों वाले एक से एक कद्दावर नेता थे। ये खूबी गांधी की थी। उनके बनाए दौर की थी जिसके कारण कांग्रेस और कांग्रेस से बाहर नेताओं से भरा आकाश दिखाई देता था। गांधी को भी यह अवसर उनसे पहले के नेताओं और समाज सुधारकों ने उपलब्ध कराया था। मोदी के ही शब्दों में यह भगत सिंह का भी अपमान है कि उनकी सारी कुर्बानी को नेहरू के लिए रचे गए एक झूठ से जोड़ा जा रहा है।
भगत सिंह और नेहरू को लेकर प्रधानमंत्री ने जो ग़लत बोला है, वो ग़लत नहीं बल्कि झूठ है। नेहरू और फील्ड मार्शल करियप्पा, जनरल थिम्मैया को लेकर जो ग़लत बोला है वो भी झूठ था। कई लोग इस ग़लतफ़हमी में रहते हैं कि प्रधानमंत्री की रिसर्च टीम की ग़लती है। आप ग़ौर से उनके बयानों को देखिए। जब आप एक शब्दों के साथ पूरे बयान को देखेंगे तो उसमें एक डिज़ाइन दिखेगा। भगत सिंह वाले बयान में ही सबसे पहले वे खुद को अलग करते हैं। कहते हैं कि उन्हें इतिहास की जानकारी नहीं है और फिर अगले वाक्यों में विश्वास के साथ यह कहते हुए सवालों के अंदाज़ में बात रखते हैं कि उस वक्त जब भगत सिंह जेल में थे तब कोई कांग्रेसी नेता नहीं मिलने गया। अगर आप गुजरात चुनावों में मणिशंकर अय्यर के घर हुए बैठक पर उनके बयान को इसी तरह देखेंगे तो एक डिज़ाइन नज़र आएगा।
बयानों के डिज़ाइनर को यह पता होगा कि आम जनता इतिहास को किताबों से नहीं कुछ अफवाहों से जानती है। भगत सिंह के बारे में यह अफवाह जनसुलभ है कि उस वक्त के नेताओं ने उन्हें फांसी से बचाने का प्रयास नहीं किया। इसी जनसुलभ अफवाह से तार मिलाकर और उसके आधार पर नेहरू को संदिग्ध बनाया गया। नाम लिए बग़ैर कहा गया कि नेहरू भगत सिंह से नहीं मिलने गए। यह इतना साधारण तथ्य है कि इसमें किसी भी रिसर्च टीम से ग़लती हो ही नहीं सकती। तारीख या साल में चूक हो सकती थी मगर पूरा प्रसंग ही ग़लत हो यह एक पैटर्न बताता है। ये और बात है कि भगत सिंह सांप्रदायिकता के घोर विरोधी थे और ईश्वर को ही नहीं मानते थे। सांप्रदायिकता के सवाल पर नास्तिक होकर जितने भगत सिंह स्पष्ट हैं, उतने ही आस्तिक होकर नेहरू भी हैं। बल्कि दोनों करीब दिखते हैं। नेहरू और भगत सिंह एक दूसरे का सम्मान करते थे। विरोध भी होगा तो क्या इसका हिसाब चुनावी रैलियों में होगा।
नेहरू का सारा इतिहास मय आलोचना अनेक किताबों में दर्ज है। प्रधानमंत्री मोदी अभी अपना इतिहास रच रहे हैं। उन्हें इस बात ख़्याल रखना चाहिए कि कम से कम वो झूठ पर आधारित न हो। उन्हें यह छूट न तो बीजेपी के प्रचारक के तौर पर है और न ही प्रधानमंत्री के तौर पर। कायदे से उन्हें इस बात के लिए माफी मांगनी चाहिए ताकि व्हाट्स अप यूनिवर्सिटी के ज़रिए नेहरू को लेकर फैलाए जा रहे ज़हर पर विराम लगे। अब मोदी ही नेहरू को आराम दे सकते हैं। नेहरू को आराम मिलेगा तो मोदी को भी आराम मिलेगा।

जनता अपनी आस्था और बुद्धि क्यों आसाराम जैसों के पास गिरवी रख देती है?

उमा भारती ने मध्य प्रदेश में अपने मुख्यमंत्रीकाल में विधानसभा के अंदर आसाराम के प्रवचन कराए थे तो पूरे मंत्रिमंडल के साथ सत्ता पक्ष के सारे विधायकों के लिए उसे सुनना अनिवार्य कर दिया था.

Asaram Bhakt
भक्तों के बीच आसाराम (फोटो साभार: फेसबुक/आसाराम)
जोधपुर में विशेष एससी-एसटी अदालत के जज मधुसूदन शर्मा द्वारा वहां की सेंट्रल जेल में शाहजहांपुर की एक अवयस्क लड़की से बलात्कार के दोषी आसाराम को उम्रकैद की सजा सुनाने से खुश पीड़िता के पिता भले ही यह महसूस करते हुए कि उन्हें इंसाफ मिल गया है, अपनी लड़ाई में साथ देने वालों का शुक्रिया अदा कर रहे और उम्मीद जता रहे हों कि अब मामले के उन गवाहों को भी न्याय मिलेगा, जिनकी हत्या कर दी गई या अपहरण कर लिया गया, लेकिन देश की न्यायप्रणाली में प्रायः नजर आ जाने वाले छिद्रों के मद्देनजर अभी यह नहीं कहा जा सकता कि आसाराम वाकई अपने अंजाम को पहुंच गये हैं या उन्हें ‘करनी का फल’ मिल गया है.
अकारण नहीं कि पीड़िता के पिता के बरक्स आसाराम ने सजा सुनाये जाते वक्त हताश-निराश दिखने के बावजूद एक बार भी यह नहीं जताया कि इससे उन्हें अपने अपराध का किंचित भी बोध हुआ है, जबकि उनकी प्रवक्ता नीलम दुबे ने न्यायपालिका में ‘पूरा भरोसा’ जताया और कहा है कि अपनी लीगल टीम से बात करके आगे की रणनीति तय करने की बात कही है.
साफ है कि आसाराम और उनके लोग अभी भी उनको निर्दोष प्रदर्शित करते हुए ऊपर की अदालत में जाकर मामले को उलझाने के लिए कुछ भी उठा नहीं रखने वाले. हम जानते हैं कि इसके लिए उनके हाथ तो लंबे हैं ही, उनके पास न पैसे की कमी है, न पहुंच की.
उनके भक्तों की बड़ी संख्या और साम्राज्य की निस्सीमता के जो विवरण समाचार माध्यमों में कई बार दिये जा चुके हैं, उन्हें मामले के गवाहों की हत्या और अपहरण आदि के संदर्भों से जोड़कर देखें तो अनुमान लगाना मुश्किल है कि आगे चलकर कब किस मोड़ पर वे उस ‘सबूतों के अभाव’ या संदेह के हाथों उपकृत हो जायें, जिसका लाभ हमेशा अभियुक्तों को ही दिये जाने की न्यायिक परंपरा है.
इसी परंपरा के तहत अभी हाल में हमने मक्का मस्जिद विस्फोट मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी की विशेष अदालत में मुख्य अभियुक्त स्वामी असीमानंद को पूर्व में दिये गये इकबालिया बयान से मुकरकर ‘पर्याप्त सबूतों के अभाव में’ बरी होते देखा है.
फिर किसे नहीं मालूम कि आसाराम जैसे खुद को धर्म, योग, अध्यात्म और कई बार भगवान तक का प्रतीक मानने वाले स्वनामधन्य अपने को उन सारे उपदेशों, नैतिकताओं, आस्थाओं और विश्वासों से ऊपर मानते हैं, जिनका वे अपने भक्तों को उपदेश दिया करते हैं.
हां, फैसले की टाइमिंग पर जायें तो यह ऐसे समय में आया है, जब 1989 के अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण कानून को लेकर सर्वोच्च न्यायालय के बहुचर्चित फैसले के बाद उसे लेकर बहस छिड़ी हुई है और राष्ट्रपति ने बच्चियों व अवयस्क बालिकाओं के बलात्कारियों को कठोरतम सजा दिलाने के लिए संबंधित कानून में संशोधन का अध्यादेश जारी कर रखा है.

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इस अध्यादेश के तहत बलात्कारियों को सुनाई गई सजा के खिलाफ दायर अपील पर सुनवाई पूरी करने की जो समय-सीमा निर्धारित की गयी है, उससे उम्मीद की जा सकती है कि यह मामला द्रौपदी के चीर जैसा खिंचकर अंतहीन नहीं होगा और तय समय सीमा में आखिरी पायदान तक पहुंच जायेगा.
लेकिन अभी तो यही कह सकते हैं कि अवयस्क पीड़िता और उसके परिजनों द्वारा प्रदर्शित अटूट दृढ़ता से उस पायदान की एक और सीढ़ी तय हो गयी है. इस एक सीढ़ी की राह में भी आसाराम के भक्तों के कारण इतने अंदेशे थे कि न सिर्फ जेल में अदालत लगानी पड़ी, बल्कि फैसले से पहले निषेधाषा लागू करनी पड़ी.
फोटो साभार: डेरा सच्चा सौदा फेसबुक पेज
फोटो साभार: डेरा सच्चा सौदा फेसबुक पेज
साथ ही केंद्र को राजस्थान, गुजरात और हरियाणा जैसे राज्यों से सुरक्षा के कड़े बंदोबस्त करने को कहना पड़ा. इसलिए कि इन राज्यों में बड़ी संख्या में आसाराम के भक्त हैं और वे जनजीवन के साथ पीड़िता की सुरक्षा को भी खतरा बढा़ सकते हैं.
2013 में आसाराम पकड़े गये तो जंतर-मंतर पहुंचे उनके ‘भक्तों’ ने पत्रकारों से मारपीट करके उनके कैमरे तक तोड़ दिए थे. फिर वे महीनों तक जंतर-मंतर पर प्रदर्शन करके आसाराम की रिहाई की मांग करते रहे थे.
अभी गत वर्ष हरियाणा के ऐसे ही एक मामले में गुरमीत राम-रहीम को सजा हुई, तो उनके समर्थकों के मचाये कोहराम के बीच दर्जनों जानें चली गई थीं और सरकारी-गैर-सरकारी संपत्ति का भारी नुकसान हुआ था.
इतना ही नहीं, सैकड़ों गाड़ियां फूंक दी गईं थीं और हजारों लोग कर्फ्यू और लाखों रेल व्यवस्थाएं ठप होने से प्रभावित हुए थे. उससे पहले इसी राज्य में हत्याभियुक्त संत रामपाल की गिरफ्तारी हुई तो उनके समर्थक भी ऐसे ही उपद्रवों पर उतरे थे.
प्रसंगवश, आसाराम के खिलाफ भारतीय दंड संहिता की धारा 342, 376, 504 और 509 के अलावा यौन अपराधों से बच्चों की सुरक्षा अधिनियम (पॉक्सो) की धारा 8 और किशोर न्याय (बाल देखरेख एवं संरक्षण) अधिनियम की धारा 23 और 26 के तहत मामले दर्ज हैं.
जैसे वे इस तरह के मामले में कठघरे में खड़ी होने वाली इकलौती धार्मिक या आध्यात्मिक ‘विभूति’ अथवा ‘भगवान’ नहीं हैं, वैसे ही यह उनके खिलाफ अकेला मामला नहीं है. गुजरात के सूरत में भी दो लड़कियों ने आसाराम व उनके बेटे नारायण साईं के खिलाफ बलात्कार और बंदी बनाकर रखने का आरोप लगाया है, जिसमें उच्चतम न्यायालय ने अभियोजन पक्ष को पांच सप्ताह के भीतर सुनवाई पूरी करने का निर्देश दे रखा है.
ऐसे मामलों में बार-बार बेहिस व पेचीदा सिद्ध होने वाली अदालती व कानूनी कार्रवाइयों को छोड़ भी दें तो देश में वैज्ञानिक ज्ञान और चेतना के प्रसार के अनेकानेक दावों के बावजूद आसाराम जैसे स्वघोषित बाबाओं और कानून द्वारा घोषित अपराधियों के लिए उनके भक्तों की पागलपन की हद तक अंधश्रद्धा जितनी हैरान करती है, उतनी ही परेशान भी.
जितनी चिंता इन स्वयंभू बाबाओं की जघन्य अपराधों में लिप्तता से होती है, उतनी ही इससे भी कि उनके रचे तिलिस्म के शिकार न उनके लिए जानें लेने से हिचकते हैं, न ही जान देने से. वे उनके खिलाफ कुछ सुनने-समझने को भी तैयार नहीं होते क्योंकि मानसिक रूप से उनके गुलाम बन जाते हैं. उनके आगे वे देश के कानून या न्याय व्यवस्था की भी कोई अहमियत नहीं समझते.
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प्रतीकात्मक तस्वीर (रॉयटर्स)
सवाल है कि चमत्कारों को नमस्कार की देश की पुरानी परंपरा आखिर कब तक इतनी ताकतवर बनी रहेगी कि लोग अपनी आस्थाओं के स्रोत तलाशने के क्रम में इस तरह छले जाते रहेंगे? कब तक ऐसी ‘विभूतियों’ की पोल खोलने के लिए नरेंद्र दाभोलकर जैसे लोगों को अपनी जानें देनी पड़ेंगी?
जवाबों की तलाश में भी इस प्रतिप्रश्न से ही सामना होता है कि हमारे लोकतंत्र में आम लोग अभी कितने सालों तक असुरक्षा भाव से त्रस्त रहेंगे? क्या यह असुरक्षा भाव ही उन्हें ऐसी ‘विभूतियों’ तक नहीं ले जाता?
जिन लोगों में कुछ खोने का भाव होता है, ऐसी विभूतियों पर उनकी ही निर्भरता सबसे ज्यादा क्यों होती है? इसमें टेलीविजन से लेकर इंटरनेट तक फैले संवाद, समाचार व प्रचार माध्यमों की कितनी भूमिका हैं?

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जो नेता कथित वोटबैंक के चक्कर में खुद इन ‘विभूतियों’ के शरणागत होकर उन्हें कई तरह के लाभ पहुंचाते रहते हैं, वे इनसे निपटने में क्योंकर मददगार हो सकते हैं?
उमा भारती ने मध्य प्रदेश में अपने मुख्यमंत्रीकाल में विधानसभा के अंदर आसाराम के प्रवचन कराए थे तो पूरे मंत्रिमंडल के साथ सत्तापक्ष के सारे विधायकों के लिए उसे सुनना अनिवार्य कर दिया था. उस प्रवचन को याद करते हुए ऐसी ‘विभूतियों’ के लिए भक्तों के पागलपन को समझना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है.
आखिरकार जिस देश के प्रधानमंत्री चिकित्सा विज्ञान का ‘इतिहास’ बताते हुए पूरे आत्मविश्वास से कहेंगे कि हमारे यहां गणेश को प्लास्टिक सर्जरी के जरिए हाथी का सिर लगाया गया था, उसमें भक्तों की नियति इस पागलपन के अलावा कुछ और कैसे हो सकती है?
अलबत्ता, इस पागलपन को काबू नहीं किया गया तो आश्चर्य नहीं कि किसी दिन रामपालों, राम रहीमों और आसारामों से निपटना रक्तबीज से निपटने जितना कठिन हो जाये. फिर? बेहतर होगा कि वैसे हालात बनने से पहले ही उन परिस्थितियों और कारणों से निजात पाने की सोच ली जाये जिनके चलते कोई ढोंगी आसाराम जैसा साम्राज्य खड़ा करने में सफल हो जाता है और अंधी आस्था के नाम पर निर्दोष लोग स्वेच्छया उसकी गुलामी की बेड़ियां पहनने को तैयार हो जाते हैं.
इसके लिए जिस सामाजिक सांस्कृतिक आंदोलन की जरूरत है, उसमें जितनी देर होगी, इससे जुड़ी मुसीबतें उतनी ही बढ़ती जायेंगी. समझने की जरूरत है कि इस मामले में अवयस्क पीड़िता को इतनी तकलीफें झेलनी पड़ीं तो इसका सबसे बड़ा कारण उसके पिता का आसाराम को पहचानने में गलती करना और परिवार समेत उनके छल का शिकार हो जाना ही था. वरना न होता बांस और न बजती बांसुरी.

पद्मावती विवाद और राजपूत ###########

*पद्मावती विवाद और राजपूत
राजस्‍थान के राजपुतों में भयंकर गरीबी है। शायद जाटों से भी ज्‍यादा। ३० प्रतिशत के आसपास बीपीएल होंगे। काश कि कभी ये रोजगार के लिए सड़कों पर उतरते। पर नहीं, उतरेंगे तो कभी गैंगस्‍टर आनंदपाल के लिए और कभी पद्मावती के लिए।
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लेकिन ये तो आजकल हर जाति में हो रहा है। *हर कोई अस्मिता के लिए सड़कों पर उतर रहा है, मुर्ति के लिए उतर रहा है पर रोजगार के लिए नहीं। इसका मूल कारण कोई एक जाति नहीं बल्कि देश में एक क्रान्तिकारी आन्‍दोलन की अनुपस्थिति है जिसके कारण तमाम प्रतिक्रियावादी जनता को गलत रास्‍ते पर ले जाने में सफल हो रहे हैं।*
*शहीदे आजम भगत सिंह* ने कहा था “जब गतिरोध की स्थिति लोगों को अपने शिकंजे में जकड़ लेती है तो किसी भी प्रकार की तब्दीली से वे हिचकिचाते हैं। इस जड़ता और निष्क्रियता को तोड़ने के लिये एक क्रान्तिकारी स्पिरिट पैदा करने की ज़रूरत होती है, अन्यथा पतन और बर्बादी का वातावरण छा जाता है।… लोगों को गुमराह करने वाली प्रतिक्रियावादी शक्तियाँ जनता को ग़लत रास्ते पर ले जाने में सफल हो जाती हैं। इससे इन्सान की प्रगति रुक जाती है और उसमें गतिरोध आ जाता है। इस परिस्थिति को बदलने के लिये यह ज़रूरी है कि क्रान्ति की स्पिरिट ताज़ा की जाये, ताकि इन्सानियत की रूह में हरकत पैदा हो।”
इसलिए आज भगतसिंह के रास्‍ते पर चलने की जरूरत है। कभी राजपूतों, कभी जाटों, कभी मराठों को सड़कों पर हिंसा करते देखकर गालियां देकर शांत होकर बैठने से बेहतर है कि उनके सामने ये साफ किया जाये कि उनका दुश्‍मन कौन है और तब शायद वो पद्मावती के लिए नहीं बल्कि शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, रोजगार के लिए सड़कों पर उतरें।

नौकरियां कहां है, नौजवान कहां हैं, क्रांति फिल्म का वो गाना कहां हैं

नौकरियां कहां है, नौजवान कहां हैं, क्रांति फिल्म का वो गाना कहां हैं
ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि सरकार पांच साल से ख़ाली पड़े पद समाप्त करने जा रही हैं। यह साफ नहीं है कि लगातार पांच साल से ख़ाली पड़े पदों की संख्या कितनी है। अवव्ल तो इन पर भर्ती होनी चाहिए थी मगर जब नौजवान हिन्दू मुस्लिम डिबेट में हिस्सा ले ही रहे हैं तो फिर चिन्ता की क्या बात। यह आत्मविश्वास ही है कि जिस समय रोज़गार बहस का मुद्दा बना हुआ है उस समय यह ख़बर आई है।
वित्त मंत्रालय ने 16 जनवरी को अलग अलग मंत्रालयों और विभागों को ऐसे निर्देश भेज दिए हैं। विभाग प्रमुखों से कहा गया है कि ऐसे पदों की पहचान करें और जल्द से जल्द रिपोर्ट सौंपे।
इस ख़बर में नौकरी की तैयारी कर रहे युवाओं का दिल धड़का दिया है। अब ये नौजवान क्या करेंगे, कोई इनकी क्यों नहीं सुनता, इन नौजवानों ने आख़िर क्या ग़लती कर दी ? बहुत सी परीक्षाएं हो चुकी हैं मगर ज्वाइनिंग नहीं हो रही है। 30 जनवरी को यूपी में तीन तीन भर्तियां रद्द हो गईं। लड़के उदास मायूस हैं। रो रहे हैं। उनके साथ ऐसा क्यों हो रहा है।
जिस 16 जनवरी को वित्त मंत्रालय ने तमाम विभागों को निर्देश दिए कि पांच साल से ख़ाली पड़े पदों को समाप्त कर दिया जाए, उसी 16 जनवरी को एक और ख़बर छपी थी। यह ख़बर भी वित्त मंत्रालय की रिपोर्ट के आधार पर थी कि 1 मार्च 2016 तक चार लाख से अधिक पद ख़ाली पड़े थे। ये सारे पद केंद्र सरकार के विभागों से संबंधित हैं।
16 जनवरी के इकोनोमिक टाइम्स में रिपोर्ट छपी है कि 1 मार्च 2016 तक ग्रुप ए के 15, 284 पद ख़ाली थे। ग्रुब बी के 49, 740 पद ख़ाली पड़े थे। ग्रुप सी के 3, 21, 418 पद ख़ाली थे। ग्रुप सी के इन पदों के लिए लाखों की संख्या में मेरे नौजवान दोस्त आस लगाए बैठे हैं।
आज इतने बड़े देश में इन नौजवानों के लिए बात करने वाला एक नेता नहीं है। नौकरियां कम हो रही हैं। नौजवान दिखाई नहीं दे रहे हैं। मुझे क्रांति का गाना याद आ रहा है। वो जवानी जवानी नहीं जिसकी कोई कहानी न हो। हिन्दू मुस्लिम टॉपिक ने नौजवानों को बौद्धिक ग़ुलाम बना लिया है। नौकरियां न देने का यह सबसे अच्छा समय है। नौजवानों को हिन्दू मुस्लिम टापिक की गोली दे दो, वो अपनी जवानी बिना किसी कहानी के काट देगा।
पिछले साल नवंबर में खादी ग्रामोद्योग आयोग ने 300 से अधिक की भर्ती निकाली। फार्म के लिए 1200 रुपये लिए और फीस लेने के कुछ दिन के भीतर ही भर्ती की प्रक्रिया अस्थायी रूप से स्थगित कर दी। ढाई महीने हो गए, उसका कुछ अता पता नहीं है। सोचिए खादी ग्रामोद्योग फार्म भरने के 1200 रुपये ले रहा है। सोचिए कि ये लोगों को सवाल नहीं लगता है।
2016-17 में प्रधानमंत्री रोज़गार प्रोत्साह योजना लांच हुई थी। एक साल में ही इसका बजट आधा किए जाने के संकेत है। ऐसा बिजनेस स्टैंडर्ड के रिपोर्टर सोमेश झा ने लिखा है। इस योजना के तहत अगर कोई कंपनी अपने कर्मचारी को EPFO, EPS में पंजीकृत कराती है तो सरकार तीन साल तक कंपनी का 8.33 प्रतिशत हिस्सा ख़ुद भरेगी। इससे लाभान्वित कर्मचारी वही होंगे जिनकी सैलरी 15000 रुपये प्रति माह तक ही होगी। सरकार ने इस योजना के लिए 1000 करोड़ का प्रावधान किया था।
अखबार लिखता है कि दिसंबर 2017 तक EPFO को मात्र 2 अरब रुपये ही मिले थे। उसने श्रम मंत्रालय को पत्र लिखकर 500 करोड़ की मांग की है। इसका मतलब यह है कि कंपनियों ने पंजीकृत तो करा दिया है मगर कंपनियों को हिस्सा नहीं मिल रहा है। 2017-18 के लिए 700 करोड़ की ही ज़रूरत पड़ी है।
इसका एक और मतलब है कि EPFO के रिकार्ड पर कम ही कर्मचारी जुड़े हैं। बिजनेस स्टैंडर्ड लिखता है कि जुलाई 2017 तक 9000 कंपनियों के 3, 61,024 लाख कर्मचारियों ने EPFO का लाभ लिया। उसके बाद अगस्त से दिसंबर 2017 के बीच 28,661 कंपनियों के 18 लाख कर्मचारियों ने इस योजना का लाभ लिया।
इस तरह कुल संख्या करीब 22 लाख के करीब बैठती है। हर महीने 3 लाख 66 हज़ार नए कर्मचारी EPFO से जुड़ते हैं। आप कह सकते हैं कि ये रोज़गार का आंकड़ा दर्शाता है। मगर कई बार कंपनियां सरकार की योजना का लाभ लेने के लिए उन कर्मचारियों को इस योजना से जोड़ती हैं जो पहले से काम कर रहे हैं। इसलिए दावे से नहीं कह सकते हैं कि यह नया रोज़गार है।
इस पोस्ट को कम से कम दस लाख नौजवानों तक पहुंचा दें।

सरकार है या मौत की फैक्ट्री..?

असली पप्पू तो ये चाय वाला निकला 9 महीने बाद पता चला पप्पू फेल हो गया हैं. गरीबी मिटा देने की बातें सिर्फ बातें हैं, जो दौलत के भूखे है...